Sunday, July 20, 2008

कब जागेगे हम

आज सुबह - सुबह जब मैं अखबार देख रहा था तो सन्डे स्पेशल मैगजीन में ऐक्टर मनोज बाजपेयी का एक आर्टिकल पढ़ा। मनोज ने बहुत ही सीधे और सरल शब्दों में काफी गहरी बात कही है। उन्होंने तेजी से प्रदूषित होते पर्यावरण को लेकर चिंता ज़ाहिर की। वो भी सीधे और सपाट लहजे में। हम और हमारी सरकार सिर्फ़ प्लानिंग ही करते रहते है, की प्लान्टेशन करना चाहिए, पानी की बर्बादी रोकनी चाहिए, बिजली का दुरपयोग कम करना चाहिए आदि, इत्यादि । पर सबसे बड़ी बात यह है की हम ऐसा करते कब है। हर जगह नए नए शोपिंग माल्स बन रहे है, फ्लैट्स बन रहे है। ऊँची ऊँची इमारतें तन रही है। पर पेड़ लगाना, तालाब खुदवाना, कुआँ खुदवाना ये सब करने या सोचने के लिए किसी के पास वक्त नही है। अब पहले की तरह हमे नदियों और तालाबो में खेलना अच्छा ही नही लगता, क्योंकि अब हमारे बच्चो को विडियो गेम्स और क्रिकेट खेलने से फुर्सत ही नही है। दरअसल ये सब इस लिए हो रहा है क्योंकि हम अपनी उस संस्कृति को भूलते जा रहे है जिसमे पेड़ पूजे जाते थे, नदियों की पूजा की जाती थी। हम पश्चिम के पीछे पागलो की तरह भागे जा रहे है। अब हम दादा- दादी, नाना-नानी की संस्कृति को पहचानते ही नही। हमारे गावो को शहर ही हवा इतनी तेज़ी से लगी है की हमारे गाव भी शहर बनने को तत्पर हो रहे है। भइये पानी बचाओ, पेड़ लगाओ, बिजली बचाओ के नारे लगाने से कुछ नही होगा। होगा तो तभी जब हम प्रकृति के पास जायेगे, उसे प्यार करेगे, उसका ख्याल रखेगे। पानी के हालत तो और ख़राब है, ज़मीन के अन्दर का जलस्तर कम से कमतर होता जा रहा है। सीधा सा कारन है कुओ के बजाये हैण्ड पम्प का ज्यादा उपयोग होने लगा है। कुओ से तो बारिश का पानी ज़मीन के अन्दर भी जाता था पर हैण्ड पम्प से नही। अगर हम अभी नही चेते तो भविष्य क्या होगा इसका अंदाजा भी नही लगाया जा सकता। अगर हमे भविष्य की प्यास से बचना है तो पानी बचाना नही पानी बढ़ाना होगा.