Thursday, December 4, 2008

मुंबई का दर्द.....

जख्मों के निशां तो बाकी रहेंगे....
हुआ है बहुत बार ऐसा, जख्म सीने पर लग हैं,
आगे भी होगा कई बार।
कोई गफलत का मारा, सिरफिरा आयेगा और दिल पर घाव देकर चला जाएगा।
लोग आएंगे आंसू बहाएंगे, कुछ फूल, कुछ रोशनियां, कुछ शब्दों की श्रद्धांजलियां देकर चले जाएंगे।
हर बार की तरह इस बार भी वक्त भर देगा मेरे सीने के जख्म।
पर इन जख्मों के निशान फिर भी बाकी रह जाएंगे।
कौन बताएगा, किससे जाकर पूछूं
क्यों बार-बार मुझे बनाया जाता रहा है निशाना,
चलाई जाती हैं गोलियां मेरी ही छाती पर,
किये जाते हैं धमाके मेरे ही आंगन में
और बहाया जाता है मेरे ही बच्चों का खून।
कौन बतायेगा मुझे कब रुकेगा ये अंतहीन सिलसिला,
कब सोएंगे मेरे बच्चे चैन की नींद।
किसके करुं फरियाद, कि बचाओ मुझे,
मत खेलो ऐसे खूनी खेल, जिसमें खो जाएं अपने ही, अपने ही आंगन में
कब तक देखूं अपने ही बच्चों का खून।
जब घर की रक्षक ही बनने लगे घर का भक्षक,
जब आंसू बहाने के होने लगा बार-बार दिखावा,
तो फिर किससे लगाऊं आस।
दर्द अब सहा जाता नहीं इंतिहा हो गई,
कोई आए और बताए मुझे कब रुकेगा ये खूनी खेल,
कब बंद होगा यह अंतहीन घावों के लगने का सिलसिला.........
कोई तो बताए मुझे...

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