Wednesday, July 14, 2010

क्या हममें है दम.....

चलो यारों वल्र्ड कप खतम हुआ और अब हमें भी आराम मिला। क्यों पूछा क्या? अरे भाई रात 7.30 से रात के 2.00 बजे जाग-जाग कर फुटबाल देखना और टेंशन में नाखून चबाने से कितनी थकान होती है आप को पता है? खैर इस बार तो शकीरा के मस्त वाका...वाका पर लगाये गये ठुमकों और पॉल बाबा की भविष्यवाणी के सहारे स्पेन नया विश्व विजेता बन गया। उसको तो मिल गई 5.30 किलो की 18 कैरेट सोने की ट्राफी और अरबों के नोट। पर अपन को क्या मिला। खैर छोड़ा। हां एक बात और कुछ डे ड्रीमर (दिन में सपने देखने वाले) सपने देखने लगे हैं कि भाई हिंंदुस्तान को भी फीफा-वीफा के वल्र्ड कप करवाने चाहिए। इसके पीछे तर्क ये दे रहे हैं कि भाई जब अफ्रीका जैसा छोटा सा देश वल्र्ड कप करवा सकता है तो हिंदुस्तान जैसा विशाल देश क्यों नहीं। ये डे ड्रीमर इसके पीछे बड़े ही जानदार तर्क देकर आपको मानने पर मजबूर कर सकते हैं कि हां हमारे प्यारे हिंदुस्तान में भी ओलंपिक और फीफा जैसे बड़े खेल महाकुंभों का आयोजन होने चाहिए। इनके तर्कों की बानगी की कुछ मिसालें देखिये.1-हमारे शहर अफ्रीका के शहरों से ज्यादा अच्छे हैं।2.हमारे यहां की जनसंख्यया दुनिया में नंबर दो पर है और हम एक विशाल देश हैं।3.हमारी इकोनॉमी ग्रोथ 6.5 है और जल्द ही डबल डिजिट में पहुंचने वाली है, अर्थात हम 10 के आंकड़े को छू लेंगे।
4. 2020 तक भारत सभी विकासशील देशों को पीछे छोड़ते हुए विकसित देशों की कतार में खड़ा हो जाएगा।
5.हमारे यहां प्रतिव्यक्ति आय लगातार बढ़ रही है और अब यह दोगुनी तक जा पहुंची है।
6.हमारे यहां हर अरबपतियों-करोड़पतियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है।
7. कई भारतीय कंपनियों फाच्र्युन की सूची में शामिल होती जा रही हैं।
8.उनके यहां रंगभेद है/था हमारे यहां नहीं है।
9. अफ्रीका की 40 फीसदी से ज्यादा आबादी एड्स/एचआईवी से जूझ रही है।ऐसे बहुत सारे तर्क यह प्रस्तुत कर सकते है। लेकिन जहां तक सारी चीजों पर गौर करने की बात है तो मेरा यही मानना है कि फिलहाल तो हिंदुस्तान में कुव्वत नहीं है कि वह इतने बड़े-बड़े खेल महाकुंभों का आयोजना करवा सके। अब देखिये कुछ इन कारणों को जिनके आधार पर मुझे लगता है कि हमारा देश ऐसे बड़े आयोजन करवाने में अक्षम है-
1. राजनीतिक खींचतान- जी हां आप सभी जानते होंगे कि अक्टूबर में दिल्ली में कॉमनवेल्थ गेम्स होने हैं, इसकी तैयारी बड़े जोर-शोर से हो रही है। लेकिन इन खेलों के आयोजन को लेकर सत्ता दल और विपक्षी दल के नेता आपत्ति उठा रहे हैं। पहले हैं मणिशंकर अय्यर जी- जो कांगे्रस के वरिष्ठ नेता हैं- इनका कहना है कि कॉमन वेल्थ खेलों का आयोजन पैसों और वक्त की बरबादी के सिवा कुछ नहीं है। वहीं सदन में विपक्ष की भूमिका निभाने वाले जद यू के अध्यक्ष शरद यादव का भी कुछ ऐसा ही मानना है। इन दोनों का तर्क है कि बेहतर होता कि इनकी तैयारी पर खर्च हो रहे पैसों का उपयोग आम आदमी के सुविधाएं बढ़ाने में किया जाता। बहुत बढिय़ा। सही सोच है।
2. हमारे यहां राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन का शुरुआती बजट मात्र 3000 करोड़ रुपए रखा गया था, जो बढ़कर अब 80 हजार करोड़ तक जा पहुंचा है। पैसों की इतनी बर्बादी क्यों हो रही है। शायद किसी से छुपा नहीं होगा।
3. फीफा के मैच जोहानिसबर्ग, पीट्सबर्ग समेत कई अन्य शहरों में हुए हैं। जबकि कॉमनवेल्थ के आयोजन केवल दिल्ली में ही होने हैं। जहां की तैयारी अब तक पूरी नहीं हो पाई है।
4. अफ्रीका के स्टेडियम महीनों पहले ही तैयार हो गये थे, जबकि हमारे यहां 80 दिन बाकी होने पर भी हम यह दावा नहीं कर सकते कि हमारे स्टेडियमों समेत अन्य सुविधाओं का 80 फीसदी काम भी पूरा हो पाया हो।
5. दिल्ली सरकार ने पहले स्टेडियमों की तैयारी, खेल गांव, दिल्ली के सौंदर्यीकरण समेत सभी निमार्णाधीन कामों को पूरा करने की समयसीमा रखी थी 30 जून 10 तक, लेकिन अब मुख्यमंत्री का कहना है कि सब काम पूरे होने में 31 अगस्त तक का समय लगेगा। बहुत बढिय़ा।
6. जरा दिल्ली जाकर देखिये- कि वहां की कॉमनवेल्थ के नाम पर आम आदमी को हर रोज कैसे नारकीय अनुभवों से गुजरना पड़ता है। जगह-जगह सड़कें खुदी हैं, डिवाइडर तोड़ डाले गये हैं, पूरे कनॉट प्लेस को सौंदर्यीकरण के नाम पर खोद डाला गया है और चारों ओर मलबा ही मलबा। अब बताइये मात्र एक खेल आयोजन, (जिसमें लगभग 60 देशों को भाग लेना है) सरकार के सिर से पांव तक पसीना बह रहा है तो ओलंपिक और फीफा जैसे आयोजनों में तो न जाने क्या होगा।
7. अफ्रीका की आर्थिक स्थिति से अपनी तुलना करने से पहले-यूएनडीपी की ह्यूमन डिवेलपमेंट की हालिया रिपोर्ट पर नजर डालना जरूरी है-जिसमें कहा गया है कि भारत के 8 राज्य अफ्रीका के 26 देशों से ज्यादा गरीब हैं। अपने देश में गरीबों की संख्या 42 करोड़ है, जो अफ्रीकी देशों के गरीबों से एक करोड़ ज्यादा है। इन राज्यों में मप्र, बिहार, झारखंड, प. बंगाल, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा शामिल हैं। यूएनडीपी के अनुसार गरीब का मतलब 1 डालर प्रतिदिन से कम कमाने वाले लोग हैं। अब करो तुलना अफ्रीका और हिंदुस्तान में।
7. अब जरा आप याद कीजिये कि अपने यहां क्रिकेट के अलावा कौन सा ऐसा खेल है, जिसे भरपूर समर्थन मिलता हो। अभिनव बिंद्रा, विजेंद्र सिंह, राठौर, कर्णम मलेश्वरी और लिएंडर पेस समेत जितने भी ओलंपिक पदक विजेता हैं- उन्होंने जो कुछ भी हासिल किया, सिर्फ अपने दम-खम पर। सरकार की ओर से इन्हें ज्यादा सहारा न मिला।
8. कुछ महीनों पहले की बात है-जब हमारी राष्ट्रीय हॉकी टीम ने वल्र्ड कप से पहले ही टे्रनिंग कैंप में जाने से यह कहकर इंकार कर दिया था, पहले हमारे पुराने मैचों का भुगतान किया जाए, फिर हम आगे पै्रक्टिस करेंगे। तो यह हाल है हमारे राष्ट्रीय खेल के खिलाडिय़ों का, कि उनके पैसों का भुगतान सालों तक नहीं किया जाता। कैसे बढ़ेगी हॉकी आगे?
9. हमारे खेल संघों की तरफ नजर घुमाइये- आपको दिखेंगे राजनेता, बिजनेसमैन और समाजसेवक टाइप लोग। लेकिन आपको खिलाड़ी नहीं दिखेंगे। इतना भी होता तो भला था, लेकिन यहां तो ये महानुभाव लगातार खेल संघों की कुर्सी से ऐसे जम जाते हैं, जैसे कुर्सी में फेवीकोल का जोड़ लगा हो।जब हॉकी का विवाद उठा था, खेल मंत्री केपीएस गिल ने कहा था कि खेल संघों में जमे नेताओं और खेल से संबंध न रखने वाले लोगों को बाहर का रास्ता दिखाएंगे। इतना ही नहीं उन्होंने हर पांच साल में खेल संघों के पदाधिकारियों का चुनाव कराने का निर्णय लिया था? क्या हुआ उसका पता नहीं।
10. अफ्रीका में फीफा के आयोजन से पूर्व इसमें सहभागी एक प्रमुख कार निर्माता कंपनी फॉक्स वैगन(वोल्स वैगन) ने लोगों को जागरुक करने के लिए कई सामाजिक कार्य किये। इन सामाजिक कार्यों के तहत करोड़ों डॉलर का निवेश किया इस प्रमुख कंपनी ने। अपने देश में बताइये ऐसी कितनी कंपनियां हैं, जो सामाजिक काम के तौर पर लोगों को जागरुक करती हैं।
खैर यह तो कुछ बानगी मात्र हैं। पर हकीकत यह है कि हमारे खेलों के लिए मानसिकता ही नहीं है। क्योंकि अपने यहां हमेशा से माना जाता रहा है कि खेलोगे-कूदोगे तो बनोगे खराब और पढ़ोगे-लिखोगे तो होगे नवाब। हालांकि क्रिकेट के लिए हमारे देश में अब मां-बाप की मानसिकता बन चुकी है, अब वो बच्चे को सचिन, धोनी या हरभजन बनाना चाहते हैं, लेकिन पीटी ऊषा, मिल्खा सिंह या वाइचुंग भूटिया जैसे एथलीट या फुटबालर नहीं। क्योंकि क्रिकेट में ग्लैमर है, पैसा है, नाम है।
अब तक जो हुआ वो हुआ। लेकिन अब वक्त आ गया है कि हम पिछले साल ओलंपिक का आयोजन करा कर दुनिया को दांतों तले अंगुलियां दबवा देने वाले चीन और हाल ही में फीफा का सफल आयोजन करवा कर अपनी नई पहचान बनाने वाले अफ्रीका से कुछ सीखने का।
अब जरुरत है-
1. सबसे पहले खेल संघों के महत्वपूर्ण पदों पर वर्षों से अवैध कब्जा जमाये हुए नेताओं, बिजनसेमैनों समेत सभी ऐसे लोगों को जिनको खेलों का ख भी नहीं पता।
2.अपनी खेल नीतियों को नये सिरे से परिभाषित करें और खेल संघों की कमान पूर्व खिलाडिय़ों को दी जाए। खेल संघों को धन की कमी न पडऩे दें।
3. बच्चों को केवल सचिन या हरभजन बनने के सपने न दिखाएं, बल्कि उन्हें पीटी ऊषा या साइना नेहवाल और धनराज पिल्लई जैसा बनने को प्रेरित करें। 4. खेल इंफ्रास्ट्रक्चर को डेवलप किया जाए, नए स्टेडियम बनाए जाएं। छोटे स्टेडियम कम से कम हर शहरों में हो। जहां स्थानीय खिलाड़ी पूरा अभ्यास कर सकें।
5. योग्य कोचों, और प्रशिक्षण सामग्रियों की व्यवस्था करना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसके साथ ही इन कोचों को भरपूर सुविधाएं मिलें- ताकि ये पूरी लगन से नई प्रतिभाओं को निखार सकें।
6. इन प्रशिक्षकों के साथ ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले विशेषज्ञ रखने भी जरूरी हैं, ताकि वह प्रशिक्षण के दौरान नये विचारों और टेक्निक्स को समझा कर प्रतिभाओं को हर स्तर पर निखारने में मदद दे सकें।
7. देश के हर जिले या संभाग में एक ऐसी गवर्निंग बॉडी हो, जो ईमानदारी से स्थानीय खेल संघों पर नजर रखे तथा जहां गलती हो उसे तुरंत दुरुस्त कर सके।
हालांकि ऊपर सुझाये हुए उपाय हर आम ओ खास जानता है। चाहे वो सत्ता में बैठे हुए जिम्मेदार लोग हों या दिनभर रोजी-रोटी के कमाने के लिए जद्दोजहद करता आम आदमी। लेकिन एक बात याद दिलाना जरुरी है- नई सदी में भारत जब हम भारतीय हर क्षेत्र में अपना लोहा मनवा रहे, तो उसे खेलों की दुनिया में भी सिरमौर बनना ही होगा। यह समझना होगा कि ऐसे आयोजनों से दुनिया देखती है कि आपने कितनी आर्थिक तरक्की की है और उस पैसे को अपने यहां कैसे उपयोग किया है। इसलिए जरूरत है हौसले और ईमानदारी से प्रयास की ताकि हम खेलों में भी भारत का डंका बजवा सकें। क्योंकि ऐसे बड़े आयोजनों से ही दुनिया में आपकी छवि एक मजबूत राष्ट्र के तौर पर उभरती है। अफ्रीका भले चाहे कितना भी गरीब मुल्क हो, भले चाहे वहां की इकोनॉमी ग्रोथ कम हो,भले चाहे वहां 40 फीसदी आबादी एड्स जैसी गंभीर बिमारी से जूझ रही हो, लेकिन फीफा वल्र्ड कप 2010 का आयोजन सफलतापूर्वक पूरा करने से दुनिया में उसकी वाहवाही हो रही है और अब उसके प्रति दुनिया की राजनीतिक व औद्योगिक सोच में बदलाव आने लगा है। वहां निवेश करने के लिए इनवेस्टर्स की रूचि तेजी से बढऩे लगी है। ऐसा ही कुछ उस वक्त हुआ था, जब चीन ने ओलंपिक का सफल आयोजन किया। चीन के बारे में लोगों की सोच बदली और इससे दुनिया को दिखा चीन का वह मजबूत रूप जिसने दुनिया के सामने इस मत को और मजबूती दी, कि चीन नई आर्थिक शक्ति बन कर उभर रहा है। सो अब इंतजार खत्म करें और जुट जाएं जब तक दुनिया को अपनी ताकत न दिखा दें, और कह दें हां हममे हैं दम। क्योंकि अब वक्त हमारा है।

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